अन्ना आंदोलन का अंत एक दिन होना था और हो भी
गया... एक सामाजिक कार्यकर्ता का अंत हुआ, अब उन्हें राजनितिक कार्यकर्ता कहना
ज्यादा उचित होगा. देश के इन "सच्चे सपूतों" के लिए भ्रस्टाचार मिटाने
से ज्यादा लोकपाल बिल पास कराना ज्यादा ज़रुरी है. इन्हें सिर्फ केंद्र में व्याप्त
भ्रस्टाचार दीखता है, राज्यों का क्या जहाँ UPA कि सरकार नहीं... लोकपाल बिल पास कराना
अब इनकी प्रतिस्था का विषय है. जिस प्रकार नयी फिल्म कि रिलीज के समय निर्माता और
अभिनेता विभिन्न टी.वी. कार्यक्रमों में जा कर उनकी पब्लिसिटी करते हैं उसी प्रकार
ये भी “अपने द्वारा” बनाये गए लोकपाल बिल कि मार्केटिंग कर रहे हैं. किसी और का
इन्हें मंजूर नहीं.
एक वक्त था जब मैं भी इनका समर्थन कर रहा था पर
अब इनके कार्यों से निराशा हो रही है. इन्हें सब से भ्रष्ट कांग्रेस दिखती है जब
कि सरकार में और भी कई पार्टियां है. भीड़ जुटाने के लिए बल्क SMS, सोशल मीडिया मार्केटिंग, क्या क्या
हथकंडे अपना रहे हैं लेकिन वो भीड़ शायद ही अब दोबारा आ सके जो इनके बहकावे में आकर
सडको पे उतर आई थी कि भ्रस्टाचार मिटेगा... जब सत्य का ज्ञान हुआ तो सभी ने दूरी
बनाली. पर दुखद बात यह है कि उनके एक कार्यकर्ता ने अलग होने वालों के लिए इतना तक
कह डाला “ जो इस समय मैदान छोर के जायेगा वो अपने पिता कि औलाद नहीं”. शर्म करो.
लोग खुद नहीं आये थे तुमने बुलाया था. अब जब वो जा रहे हैं तो ओछी बातें.
इनके नए फोर्मुले पर तो बहुत हसी आती है... भीड़
जुटाने के लिए बुलाया भी तो किसे एक दवा व्यपारी को जो कल तक योग से दुनिया कि
सारी सम्सायें सुलझाने का दावा करता था... कुछ लोग उन्हें बाबा कहते हैं तो कुछ
स्वामी पर ये उनके द्वारा खुद ही प्रचारित किये गए संज्ञाएँ हैं. खुद को राम और
जेल में बंद उनके ही अपने बंदे को कृष्ण कि उपाधि भी दे डाली है.
कुछ लोग अन्ना को गाँधी बनाने पे तुले हैं... नक़ल
कर के कुछ देर का तमाशा तो खरा कर सकते हैं पर किसी स्थायी समाधान कि रचना करना मुश्किल
है... देखते हैं तमाशा और कितने दिन चलता है... कितने खबर इन्हें LIVE दिखने में दबते हैं. मूल समस्यायों को
भूल कर कितने दिन और हम सरकार और अन्ना के इस खेल का लुत्फ़ उठाते हैं
PS : Please ignore the grammatical errors & spellings..